आयुर्वेद हमारे स्वास्थ्य के लिए ज्ञान की कुंजी
हमारे ऋषियों मुनियों साधक ,बैद,हकीम को बनस्पती अपने गूढ़दोष दोष का परिचय दिया करती थी जो हम इस योग को प्रयोग करके स्वास्थ की रक्षा करते है।
चम्तकारिक जडी बूटियों का वर्नण मिलता है जो चम्तकार करती है व मान्व जीवन मे उपयोगी साबित हुई है इनमें से कुछ जडी बूटीओ का वर्नण किया है जो आप के काम आएगी।
म्रत्युन्जय-योग
1. 300 वर्ष की आयु प्राप्त करने व सभी रोगों से छुटकारा पाने के लिए : मधु , त्रिफला, घृत , गिलोय। का इसतेमाल करें।
2. 500 साल तक आयु प्राप्त करने के लिए : बिल्व-तैल का नस्य/नसवार आयु 500साल तक बढ़ाता है|
3 .त्रिफला 4 तोले , 2 तोले , या 1 तोले
4 . 500 वर्ष की आयु: बिल्व तैल का नस्य एक मास तक लेने से 500 वर्ष की आयु प्राप्त होती है।
5 . अपमृत्यु और वृद्धावास्था :भिलावा और तिल का सेवन रोग, अपमृत्यु और वृद्धावास्था को दूर करता है।
6 .वाचुकी के पञ्चांग के चूर्ण को खैर क्वाथ के साथ 6 माह तक प्रयोग करने से कुष्ठ पर काबू हो जाता है।
7 .100 साल की आयु: खांड युक्त दूध पीने से।
सौ वर्ष की आयु शर्करा, सैन्धव और सौंठ के साथ अथवा पीपल, मधु, एवं गुड़ के साथ प्रति दिन दो हर्रे का सेवन करें।
8 मृत्यु पर विजय : 4 तोले मधु , घी ,सोंठ की 4 तोले की मात्रा का प्रति दिन प्रातः काल उपयोग करने से व्यक्ति मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है।
9 . .झुर्रियां व बाल सफ़ेद पर रोक : ब्राह्मी चूर्ण के साथ दूध का सेवन करने चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़तीं और बाल सफ़ेद नहीं होते व आयु वृद्धि होती है।
10 .मृत्यु पर विजय : मधु के साथ उच्चटा (भुईं आंवला ) को एक तोले की मात्रा में खाकर दुग्धपान करने वाला मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है।
5 सौ वर्ष आयु : पलाश -तैल का मधु के साथ,1 तोले, दूध के साथ प्रति दिन 6 मास तक सेवन करने से आयु 5 सौ वर्ष हो जाती है।
कांगनी के पत्तों का रस या त्रिफला दूध के साथ लेने से 1 हजार वर्ष की आयु प्राप्त होती है।
हजारों वर्ष की आयु : 4 तोले शतावरी-चूर्ण , घृत व मधु के साथ लेने से हजारों वर्ष की आयु प्राप्त होती है।
मृत्यु का नाश : मेउड़ की जड़ का चूर्ण या पत्र स्वरस रोग एवं मृत्यु का नाश करता है ।
अमर होने के लिए: नीम के पंचांग-चूर्ण को ख़ैर के क्वाथ (काढ़ा) की भावना देकर भृंगराज के रस साथ एक तोला भर सेवन करने से मनुष्य सभी रोगों से जीत कर अमर हो सकता है।
मृत्यु विजय : रुदन्तिका चूर्ण घृत और मधु के साथ सेवन करने से या केवल दुग्धाहार से मनुष्य मृत्यु को जीत लेता है।
हरीतकी चूर्ण भृंगराज रस की भावना देकर एक तोले की मात्रा में घृत और मधु के साथ सेवन करने वाला रोगमुक्त होकर तीन सौ साल की उम्र तक जीता है।
पाँच सौ साल की आयु : ताम्र भस्म, गिलोय, शुद्ध गंधक को सामान भाग घी कुंवार के रस में घोंट कर दो-दो रत्ती की गोलियां बनायें। इनका सेवन घृत के साथ करने से पाँच सौ साल की आयु प्राप्त होती है।
पांच सौ वर्ष की आयु : गेठी, लोह चूर्ण, शतावरी को समान भाग से भृंगराज रस तथा घी के साथ लेने से पांच सौ वर्ष की आयु प्राप्त होती है।
तीन सौ वर्ष की आयु : लौह भस्म व शतावरी को भृंगराज रसमें भावना देकर मधु व घी के साथ लेने से तीन सौ वर्ष की आयु प्राप्त होती है।
सौ साल तक आयु : असगन्ध, त्रिफला,चीनी,तैल, घृत में सेवन करने वाला सौ साल तक जिन्दा रह सकता है।
शतायु : गदहपूर्ना का चूर्ण एक पल मधु, घृत और दुग्ध के साथ खाने वाला शतायु होता है।
अशोक की छाल का एक पल चूर्ण मधु और घृत के साथ दुग्धपान करने से रोग नाश होता है।
सौ साल तक आयु :निम्ब के तैल की मधु सहित नस्य लेने से मनुष्य सौ साल जीता है और उसके बाल हमेशां काले बने रहते हैं।
सौ साल तक आयु :बहेड़े के चूर्ण को एक तोला मात्रा में शहद , घी और दूध के साथ पीने वाला शतायु होता है।
सौ साल तक आयु :बहेड़े के चूर्ण को एक तोला शहद, घी, और दूध पीने वाला शतायु होता है ।
सौ वर्ष तक की आयु :पिप्पली युक्त त्रिफला, मधु और घृत के साथ।
एक सहस्त्र वर्ष की आयु : पथे के एक पल चूर्ण को मधु घृत और दूध के साथ सेवन करते हुए दुग्धान्न का भोजन करने वाला निरोग रहकर एक सहस्त्र वर्ष की आयु का उपभोग करता है।
सौ वर्ष की आयु : कमल गन्ध का चूर्ण भांगरे के रस की भावना देकर मधु और घृत की साथ लेने पर सौ वर्ष की आयु प्रदान करता है।
दो सौ वर्ष की आयु : कड़वी तुम्बी के एक तोले भर तैल का नस्य दो सौ वषों की आयु प्रदान करता है ।
तीन सौ वर्ष की आयु :- त्रिफला,पीपल और सौंठ का प्रयोग तीन सौ वर्ष की आयु प्रदान करता है।
सहस्त्र वर्ष की आयु :शतावरी का त्रिफला, पीपल और सौंठ का प्रयोग सहस्त्र वर्ष की आयु व अत्यधिक बल प्रदान करता है।
तीन सौ वर्ष की आयु :- त्रिफला, पीपल और सौंठ का चित्रक के साथ प्रयोग भी तीन सौ वर्ष की आयु प्रदान करता है।
सौंठ का चित्रक व विडंग के साथ प्रयोग भी लम्बी आयु दायक है।
त्रिफला, पीपल, सौंठ का लोह, भृंगराज, खरेटी, निम्ब-पञ्चांग, ख़ैर, निर्गुण्डी, कटेरी, अडूसा और पुनर्नवा के साथ या इनके रस की भावना देकर या इनके संयोग से बटी या चूर्ण बनाकर उसका घृत, मधु, गुड़ और जलादि के साथ सेवन करने से लम्बी उम्र की प्राप्ति होती है।
वात ज्वर : बिल्वादि पंचमूल-बेल, सोनापाठा, गम्भार, पाटन, एवं अरणी का काढ़ा प्रयोग करें।
पाचन : पिप्पली मूल, गिलोय और सोंठ का क्वाथ प्रयोग करें।
ज्वर : आंवला, अभया (बडी हरड ), पीपल और चित्रक-यह आमल क्यादि क्वाथ सब प्रकार के ज्वर का नाश करता है।
खांसी, ज्वर , अपाचन, पार्श्व शूल, और कास (खाँसी ) : दश मूल – बिल्वमूल, अरणी, सोनापाठा, गम्भारी, पाटल, शालपर्णी, गोखुरू, पृष्टपर्णी, बृहती, (बड़ी कटेरी) का क्वाथ व कुश के मूल का क्वाथ-प्रयोग करें।
वात और पित्त ज्वर :- गिलोय, पित्त पापड़ा, नगर मोथा, चिरायता, सौंठ-यह पञ्च भद्र क्वाथ, वात और पित्त ज्वर में देना चाहिये।
विरेचक व सम्पूर्ण ज्वर नाष्क :- निशोथ, इंद्राय्ण (इंद्र वारुणी ), कुटकी, त्रिफला, अमलतास का क्वाथ यवक्षार मिला कर पिलायें।
सभी प्रकार के कास रोग : देवदारु,खरेठी, अडूसा, त्रिफला, व्योष (सौंठ,काली मिर्च, पीपल), पद्मकाष्ठ वाय विडंग और मिश्री सभी सामान भाग में ले।
ह्रदय रोग, गृहणी, हिक्का, श्र्वाष, पार्श्व रोग व कास रोग : दशमूल,कचूर, रास्ना, पीपल, बिल्व, पोकर मूल, काकड़ा सिंगी, भुई आंवला, भार्गी, गिलोय और पान इनसे विधि वत सिद्ध किया हुआ क्वाथ या यवागू का पान करें।
हिक्का -हिचकी रोग : मुलहठी(चूर्ण), के साथ पीपल, गुड के साथ नागर, और तीनों नमक (सैं धा नमक, विड नमक, काला नमक)।
अरुचि रोग: कारवी अजाजी (काला जीरा-सफ़ेद जीरा), काली मिर्च, मुन्नका, वृक्षाम्ल (इमली), अनारदाना, काला नमक और गुड़, इन्हें सामान भाग में मिला कर चूर्ण को शहद के साथ निर्मित कारव्यादी बटी का सेवन करें।
कास रोग (खांसी ), श्र्वाष, प्रति श्याय (जुकाम) और कफ विकार : अदरक के रस के साथ मधु इनका का नाश करते हैं।
प्यास और वमन -उल्टी : वट-वटा ङ्कुर, काकड़ा सींगी, शिलाजीत, लोध, अनारदाना और मुलहटी के चूर्ण में सामान भाग में मिश्री मिला कर मधु के साथ अवलेह (चटनी) बनायें तथा चावल के पानी के साथ लें।
कफ युक्त रक्त, प्यास, खांसी एवं ज्वर : गिलोय, अडूसा, लोध और पीपलको शहद के साथ प्रयोग करें।
कास (बल्गमी खांसी) अदुसे का रस, मधु और ताम्र भस्म सामान मात्र में लें।
सर्प विष व कास : शिरीष पुष्प के स्वर रस में भावित सफेद मिर्च लाभ प्रद हैं।
वेदना-दर्द-पीड़ा : मसूर सभी प्रकार की वेदना को नष्ट करता है।
पित्त दोष : चौंराई का साग सभी प्रकार के पित दोश को नाश करता है।
विष नाशक : मेउड़, शारिवा, सेरू और अङ्कोल।
मूर्छा, मदात्यय रोग (बेहोशी) : सौंठ, गिलोय, छोटी कटेरी, पोकर मूल, पीपला मूल और पीपल का क्वाथ।
उन्माद : हींग, काला नमक एवं व्योष (सौंठ,मिर्च,पीपल), ये सब दो दो पल लेकर 4 सेर घृत और घृत से 4 गुनी मात्रा में गौ मूत्र में सिद्ध करने पर प्रयोग करें।
उन्मादऔर अपस्मार रोग का नाश व मेधा वर्धक : शंख पुष्पी, वच, और मीठा कूट से सिद्ध ब्राह्मी रस को मिला कर इनकी गुटिका बना लें
कुष्ठ रोग कुष्ठ रोग मर्दन : परवल की पत्ती , त्रिफला, नीम की छाल, गिलोय, पृश्र्निपर्णी, अडूसे के पत्ते के साथ तथा करज्ज -इनको सिद्ध करने वाला घृत। यह वज्रक कहलाता है।
कुष्ठ नाशक: हर्रे के साथ पंचगव्य या घृत का प्रयोग।
कुष्ठ नाशक, अस्सी प्रकार के वात रोग, चालीस प्रकार के पित्त रोग,और बीस प्रकार के क़फ़ रोग ,खांसी, पीनस (बिगड़ा जुकाम ), बबासीर और व्रण रोगों का नाश यह योगराज करता है : नीम की छाल, परवल, कंटकारी-पंचांग, गिलोय और अडूसा-इन सबको दस दस पल लेकर कूट लें । 16 सेर पानी में क्वाथ बनाकर उसमें सेर भर घृत और 2 0 तोले त्रिफला चूर्ण का कल्क बनाकर डाल दें और चतुर्थांश शेष रहने तक पकाएं।
अर्श रोग :त्रिकुट युक्त घृत को तिगुने पलाश भस्म -युक्त जल में सिद्ध करके पीना है।
उपदंश की शांति : त्रिफला के क्वाथ या भ्रंग राज के रस से व्र णों को धोयें। परवल की पत्ती के चूर्ण के साथ अनार की छाल या गज पीपर या त्रिफला का चूर्ण उस पर छोड़ें ।
वमन(उल्टी) : त्रिफला, लोह्चूर्ण, मुलहटी, आर्कव, (कुकुरमांगरा ), नील कमल, कालि मिर्च और सैन्धव नमक सहित पकाये हुए तैल के मर्दन से वमन की शांति होती है ।
वमन कारक : मुलहठी, बच, पिप्पली-बीज, कुरैया की छाल का कल्क और नीम का क्वाथ घौंट देने वमन कारक होता है।
बाल पकने-सफ़ेद होने से रोकना : दूध, मार्कव-रस, मुलहटी और नील कमल, इनकी दो सेर मात्रा को पका कर एक पाव तैल में बदल कर नस्य का प्रयोग करे।
ज्वर, कुष्ठ, फोड़ा, फुंसी, चकत्ते: नीम की छाल, परवल की पत्ती , गिलोय, खैर की छाल , अडूसा या चिरायता, पाठा , त्रिफला और लाल चन्दन।
ज्वर और विस्फोटक रोग : परवल की पत्ती, गिलोय, चिरायता, अडूसा, मजीठ एवं पित्त पापड़ा-इनके क्वाथ में खदिर मिलाकर लिया जाये।
ज्वर, विद्रधि तथा शोथ : दश मूल, गिलोय, हर्रे, गधह पूर्णा , सहजना एवं सौंठ ।
व्रण शोधक : महुआ और नीम की पत्ती का लेप
बाह्य शोधन : त्रिफला (हेड़, बहेड़ा, आंवला), खैर (कत्था), दारू हल्दी, बरगद की छाल , बरियार, कुशा, नीम की पत्ते तथा मूली के पत्ते का क्वाथ।
घाव के क्रमि नष्ट करना: करंज , नीम, और मेउड़ का रस।
व्रण रोपण : धय का फूल, सफ़ेद चन्दन, खरेठी , मजीठ , मुलहठी, कमल, देवदारु, तथा मेद घाव को भरने वाले हैं ।
नाड़ी व्रण, दुष्ट व्रण, शूल और भगन्दर : गुग्गुल, त्रिफला, पीपल, सौंठ, मिर्च, पीपर इन सबको समान भाग में पीस कर घृत में मिला कर प्रयोग करें।
कफ और वात रोग : गौ मूत्र में भिगोकर शुद्ध की हुई हरीतकी (छोटी हर्र) को रेडी के तेल में भून कर सैंधा नमक के साथ प्रात प्रति दिन प्रयोग करें। ऐसी हरितकी कफ व वात से होने वाले रोगों को नष्ट करती है।
कफ प्रधान व वात प्रधान प्रकृति वाले मनुष्यों के लिए : सौंठ,मिर्च,पीपल और त्रिफला का क्वाथ यवक्षार और लवण मिलाकर पीने से विरेचन का काम करता है और कफ वृधि को रोकता है।
आम वात नाशक : पीपल, पीपला मूल , वच , चित्रक व सौंठ का क्वाथ या पेय बनाकर पियें।
वात एवं संधि, अस्थि एवं मज्जा गत, आमवात : रास्ना, गिलोय, रेंडकी की छाल, देवदारु,और सौंठ का क्वाथ में पीना चाहिये अथवा सौंठ के जल के साथ दशमूल का क्वाथ पीना चाहिये।
आम वात, कटिशूल और पांडु रोग : सौंठ,एवं गोखरू का क्वाथ प्रतिदिन प्रात: सेवन करना है। शाखा एवं पत्र सहित प्रसारिणी (छुई मुई ) का तैल भी इस रोग में लाभप्रद है।
वातरक्त रोग : गिलोय का स्वरस, कल्क , चूर्ण या क्वाथ का दीर्घ कल तक प्रयोग।
वातरक्त नाशक : वर्धमान पिप्पली या गुड़ के साथ हर्रे का सेवन करना चाहिए।
वातरक्त-दाहयुक्त रोग : पटोल्पत्र, त्रिफला, राई, कुटकी, और गिलोय का पाक तैयार करें।
वातजनित पीड़ा : गुग्गुल को ठन्डे-गरम जल से, त्रिफला को सम शीतोष्ण जल से अथवा खरेठी, पुनर्नवा, एरंड मूल, दोनों कटेरी, गोखरू, का क्वाथ, हींग तथा लवण के साथ। एक तोला पीपला मूल,सैन्धव , सौवर्चल, विड्, सामुद्र एवं औद्भिद-पाँचों नमक, पिप्पली,चित्ता, सौंठ, त्रिफला, निशोथ, वच, यवक्षार, सर्जक्षार, शीतला, दंती, स्वर्ण क्षीरी(सत्य नाशी) और काकड़ा सिंगी -इनकी बेर के बराबर गुटिका बनायें और कांजी के साथ सेवन करें -शोथ तथा उससे हुए में भी इसका सेवन करें । उदर वृद्धि में निशोथ का प्रयोग न करें।
शोथ नाशक : दारू हल्दी, पुनर्नवा तथा सौंठ-इनसे सिद्ध किया हुआ दूध।
शोथ का हरण : मदार, पुनर्नवा (-गदह्पुर्ना) एवं चिरायता के क्वाथ से सेंक करने पर।
गलगंड और गलगंड माल : फूल प्रियंगु, कमल, सँभालू, वायविडंग, चित्रक, सैंधव लवण, रास्ना, दुग्ध, देवदारु और वच से सिद्ध चौगुना कटु द्रव्य युक्त तैल मर्दन करने से (या जल के साथ ही पीसकर लेप करने से)।
टी.बी या क्षय रोग : कचूर,नागकेसर, कुमुद का पकाया हुआ क्वाथ तथा क्षीर विदारी,पीपल और अडूसा का कल्क दूध के साथ पका कर लेने से लाभ होता है।
गुल्म रोग, उदर रोग, शूल और कास रोग: वचा, विडलवण,अभया (बड़ी हर्रे), सौंठ,हींग, कूठ ,चित्रक और अजवाइन, इनके क्रमश: दो, तीन, छ:, चार, एक, सात, पाँच और चार भाग ग्रहण करके चूर्ण बनायें।
गुल्म और पलीहा : पाठा, दन्ती मूल, त्रिकटु (सौंठ,मिर्च, पीपल) त्रिफला और चित्ता का चूर्ण गौमूत्र के पीस कर गुटिका बनालें ।
कृमि नाशक : वाय विडंग का चूर्ण शहद के साथ। या विडंग, सैंधा नमक, यव क्षार एवं गौमूत्र के साथ हर्रे भी लेने पर।
रक्तातिसार : शल्लकी (शाल विशेष ), बेर, जामुन, प्रियाल, आम्र और अर्जुन -इन वृक्षौं की छाल का चूर्ण बना कर मधु में मिला कर दूध के साथ लेना है
अतिसार : कच्चे बेल का सूखा गूदा, आम की छाल, धाय का फूल, पाठा, सौंठ और मोच रस (कदली स्वरस )-इन सबका समान भाग लेकर चूर्ण बना लें गुड मिश्रित तक्र के साथ पीयें।
गुद भ्रंश रोग : चान्गेरी, बेर, दही का पानी, सौंठ और यवक्षार-इनका घृत सही क्वाथ पीने से।
प्रदर रोग : मजीठ, धाय के फूल, लोध, नील कमल-इनको दूध के साथ स्त्रियों को लेना चाहिये।
प्रदर रोग नाशक : पीली कट सरैया, मुलहठी और चन्दन ।
गर्भ स्थिर करना : श्वेत कमल और नील कमल की जड़ तथा मुलहठी , शर्करा और तिल-इनका चूर्ण का इसतेमाल करने से गर्भपात की आशंका होने पर गर्भ को स्थिर करने में सहायक है ।
शिरो रोग का नाश : देव दारू, अभ्रक, कूठ, खस और सौंठ-इनको कांजी में पीस कर तैल मिला कर, लैप करने से शिरोरोग का नाश होता है ।
कर्ण शूल शमन : सैन्धव-लवण को तैल में सिद्ध करके छान लें -हल्का गरम तैल कान में डालने से फायदा होगा ।
कर्णशूल हारी : लहसुन, अदरक, सहजन और केला -इनमें से प्रत्येक का रस कर्णशूल हारी है।
तिमिर रोग नाशक : बरियार, शतावरी, रास्ना, गिलोय, कटसरैया और त्रिफला-इनको सिद्ध करके घृत का पान या इनके सहित घृत का उपयोग।
आँखों (-चक्षुश्य), ह्रदय, विरेचक और कफ रोग नाशक : ( त्रिफला, त्रिकुट एवं सेंधव नमक -इनसे सिद्ध किये हुए घृत का पान-आँखों, ह्रदय, विरेचक और कफ रोग नाशक – के लिए हितकर है।
दिनौंधी, रतौंधी : गाय के गोबर के रस के साथ नील कमल के पराग की गुटिका का अंजन ।
सर्व रोग नाशक चूर्ण व विरेचक : हर्रे, सैन्धव लवण और पीपल -इनके समान भाग का चूर्ण गर्म जल के साथ लें । यह नाराच -संज्ञक चूर्ण सर्व रोग नाशक है ।
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